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सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal)

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विषय सूची

Second Lieutenant Arun Khetarpal
Second Lieutenant Arun Khetarpal

नाम:- सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal)

Father’s Name :- श्री मदन लाल खेत्रपाल

Mother’s Name :- NA

Domicile :- NA

जन्म:- 14 अक्तूबर 1950

जन्म भूमि :- पूना, महाराष्ट्र

शहादत :- 16 दिसम्बर 1971 (आयु 21 वर्ष)

शहादत स्थान :- बारापिंड, शकरगढ़, पंजाब

सेवा/शाखा :- भारतीय थल सेना

सेवा वर्ष :- 1971 (6 माह)

रैंक (उपाधि) :- सेकेंड लेफ़्टिनेंट

सेवा संख्यांक(Service No.) :- IC-25067

यूनिट :- 17 पूना हॉर्स

युद्ध/झड़पें :- बसंतसर का युद्ध, भारत-पाकिस्तान युद्ध 1971

सम्मान :-  परम वीर चक्र (1972 Republic Day)

नागरिकता :- भारतीय

अन्य जानकारी :- अरुण खेत्रपाल के परदादा सिक्ख सेना में कार्यरत थे और 1848 में उन्होंने ब्रिटिश सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी।

जीवन परिचय

अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal) का जन्म जन्म 14 अक्तूबर, 1950 में पूना में हुआ। उनकी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा उन अलग-अलग जगहों के स्कूलों में हुई, जहाँ उनके पिता भेजे गए, लेकिन स्कूली शिक्षा के अंतिम पाँच महत्त्वपूर्ण वर्ष अरुण ने लारेंस स्कूल सनावर में गुजारे। वह जितना पढ़ाई-लिखाई में निपुण थे उतना ही उनका रंग खेल के मैदान में भी जमता था। वह स्कूल के एक बेहतर क्रिकेट खिलाड़ी थे।

एन.डी.ए. (NDA) के दौरान वह ‘स्क्वेड्रन कैडेट’ के रूप में चुने गए। इण्डियन मिलिट्री अकेडमी देहरादून में वह सीनियर अण्डर ऑफिसर बनाए। 13 जून, 1971 को वह बाकायदा पूना हॉर्स में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट शामिल हुए। उन्होंने कभी किसी भी काम को बेमन से नहीं किया। मना तो किसी काम को कभी किया ही नहीं। यह उनकी तारीफ मानी जाती थी कि वह हर काम करने को खुशी-खुशी तैयार रहते थे और अपने काम के माहौल को बनाए रखते थे।

परिवार

अरुण खेत्रपाल जिस परिवार में जन्मे उसमें फौजी जीवन के संस्कार कई पीढ़ियों से चले आ रहे थे। अरुण के परदादा सिख सेना में कार्यरत थे और 1848 में उन्होंने ब्रिटिश सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी। उनका मोर्चा चिलियाँवाला में हुआ था। अरुण के दादा जी पहले विश्व युद्ध के सैनिक थे तथा 1917 से 1919 तक उन्होंने इसमें हिस्सा लिया था।

अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal) के पिता जी मदन लाल खेत्रपाल ब्रिगेडियर तो हुए ही उन्होंने अतिविशिष्ट सेना मेडल (AVSM) भी प्राप्त किया। जाहिर है इस परम्परा को आगे वढ़ाने वाले सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल इस दिशा में अपना कद अपने पूर्वजों से बड़ा ही स्थापित करते। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

बहादुर और अनुशासन प्रिय

अरुण खेत्रपाल के लिए बहादुरी और अनुशासन दोनों एक ही शब्द के पर्यायवाची जैसे रहे। जब वह इण्डियन मिलिट्री अकादमी में सीनियर अण्डर ऑफिसर थे, तब एक बहुत ख़ास मौका ऐसा आया, जहाँ इनका यह गुण स्पष्ट रूप से मुखर हुआ। उन्हें दो आदेश एक साथ मिले। एक आदेश ने उन्हें 11 बजे दिन में लाइब्रेरी की एक मीटिंग में भाग लेने को कहा। उसी दिन दूसरा आदेश उन्हें ठीक उसी समय, यानी 11 बजे फायरिंग रेंज में भेज रहा था।

जाहिर है कि एक साथ एक ही समय दो स्थानों पर नहीं रह सकते। लेकिन इस विरोधाभासी आदेशों पर सवाल उठाना उनकी प्रकृति में नहीं था। उन्होंने फायरिंग रेंज में जाना स्वीकार किया और वहाँ ठीक समय पर पहुँचकर अपना फर्ज पूरा किया। लाइब्रेरी की मीटिंग में न पहुँचने के कारण दण्ड स्वरूप उन्हें सेनियर अण्डर ऑफिसर से एक पद नीचे उतार दिया गया। उन्होंने यह दण्ड बिना बहस स्वीकार कर लिया। इस पर कोई शोर नहीं मचाया। उन्हें बाद में फिर सीनियर अण्डर ऑफिसर बनाया गया, लेकिन दण्ड भुगतने पर उन्होंने चूँ तक नहीं की, शिकायत तो दूर की बात है। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

भारतीय सेना में नियुक्ति

अरुण खेत्रपाल जब फौज में नियुक्त हुए उसके बाद भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध की भूमिका बन रही थी। पूर्वी पाकिस्तान पश्चिमी पाकिस्तान की बर्बरता का निरीह शिकार हो रहा था और भारत की सीमा में त्राहि त्राहि करते बांग्ला भाषी शरणर्थी बढ़ते जा रहे थे। अंतत: 3 दिसम्बर 1971 को यह नौबत आ ही गई थी कि युद्ध टाला न जा सके। 16 दिसम्बर, 1971 अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal) एक स्क्वेड्रन की कमान संभालते हुए ड्यूटी पर तैनात थे तभी एक-दूसरे स्क्वेड्रन को दुश्मन की सशक्त की सशस्त सेना का सामना कर पाने के लिए मदद की ज़रूरत पड़ी और उसने सन्देश भेजा।

इस सन्देश के सम्मान में अरुण खेगपाल स्वेच्छापूर्णक अपनी टुकड़ी लेकर शकरगढ़ सेक्टर के जरपाल पर तैनात उस स्क्वाड्रन की मदद के लिए चल पड़े, जिसने सन्देश भेजा था। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

अरुण खेत्रपाल के इस कूच में उनके टैंक पर खुद अरुण थे, जो दुश्मन की गोलाबारी से बेपरवाह उनके टैंकों को बर्बाद करते जा रहे थे। जब इसी दौर में उनका टैंक निशाने पर आ गया और उसमें आग लग गई। तब उनके कमाण्डर ने उन्हें टैंक छोड़कर अलग हो जाने का आदेश दिया। लेकिन अरुण को इस बात का एहसास था कि उनका डटे रहना दुश्मन को रोके रखने के लिए कितना ज़रूरी है।

इस नाते उन्होंने अपनी जान बचाने के लिए हट जाना मंजूर नहीं किया और उन्होंने खुद से सौ मीटर दूर दुश्मन का एक टैंक बर्बाद कर दिया। तभी उनके टैंक को भी एक और आघात लगा और वह बेकार हो गया। इसका, परिणाम तो अरुण की शहादत के रूप में सामने आया, लेकिन वह उनकी टुकड़ी को इतने जोश से भर गया कि वह और भी बहादुरी से दुश्मन पर टूट पड़े। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

पिता को पत्र

10 दिसम्बर 1971 को अरुण के पिता को अरुण का एक पत्र मिला था, जो उन्होंने पाकिस्तान की सीमा के दस मील भीतर से लिखा था। वह पत्र भी अपनी एक कहानी कहता है।

‘डियर डैडी, हमें बहुत आनन्द आ रहा है। हमारी रेजिमेंट की बहादुरी का सिक्का दुनिया भर से ऊपर है। हम जल्दी ही यह लड़ाई खत्म कर देंगे।’

सचमुच, यह युद्ध जो 17 दिसम्बर 1971 को खत्म हुआ, उसे तो अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal) पहले ही, यानी 16 दिसम्बर 1971 को जीतकर हँसी-हँसी महायात्रा पर निकल चुके थे। अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal) की बहादुरी और जोश के चर्चे तो देश भर में कहे गए और आज भी कहे जाते हैं, लेकिन उनकी असली बहादुरी तो दुश्मन द्वारा उनकी चर्चा में सामने आती है। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

शहादत के बाद

बेटे की शहादत के कुछ समय बाद ही अरुण के पिता ब्रिगेडियर मदन लाल खेत्रपाल को पाकिस्तान से सन्देश मिला कि कोई उनसे मिलना चाहता है। ऐसे सन्देश का आना भारत और पाकिस्तान के बीच शांति प्रक्रिया स्थापित करने वाली ‘ट्विन ट्रैक डिप्लोमेटिक एफर्ट’ इकाई द्वारा सम्भव हुआ था। चूँकि उसमें न तो सन्देश भेजने वाले की पहचान सामने आती थी, न ही मिलने की इच्छा का कारण स्पष्ट था, तो खेत्रपाल ने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। बात आई गई हो गई।

अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal) का पैतृक परिवार सरगोधा से जुड़ा हुआ था, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया। पद मुक्त हो जाने के बाद क़रीब अस्सी वर्ष की आयु में अरुण के पिता ने यह इच्छा जाहिर की कि वह अपनी पैतृक भूमि सरगोधा जाकर कुछ समय बिताएँ। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए इसकी व्यवस्था हुई और उनका वीसा आदि जारी किया गया। पाकिस्तान में उनकी सरगोधा में रहने की व्यवस्था देखने के लिए एक जिम्मेदार फौजी अधिकारी तैनात किया गया। उस अधिकारी ने उन्हें जितना भाव भीना सत्कार तथा गहरी आत्मीयता दी वह उनको गहरे तक प्रभावित कर गई।

उन्हें उस व्यक्ति ने अपने परिवार में अंतरंगता पूर्णक स्थान दिया। यह वर्ष 2001 की बात है। जब अरुण की वीरगति को तीस वर्ष बीत चुके थे और वह परमवीर चक्र से सम्मानित किए जा चुके थे। वह परमवीर चक्र पाने वाले सबसे कम उम्र के जवान थे और उन्हें यह सम्मान केवल छह महीने के कार्यकाल में ही मिल गया था। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

शत्रु पक्ष भी हुआ वीरता का क़ायल

पाकिस्तान में जिस अधिकारी को ब्रिगेडियर मदनलाल खेत्रपाल का आतिथ्य कार्य सौंपा गया था, वह पाक सेना की 13 लैंसर्स के ब्रिगेडियर के. एम. नासर थे। इनके अंतरंग आतिथ्य ने खेत्रपाल को काफ़ी हद तक विस्मित भी कर दिया था। जब खेत्रपाल की वापसी का दिन आया तो नासर परिवार के लोगों ने खेत्रपाल के परिवार वालों के लिए उपहार भी दिए और ठीक उसी रात ब्रिगेडियर नासर ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से कहा कि वह उनसे कुछ अंतरंग बात करना चाहते हैं।

फिर जो बात उन्होंने खेत्रपाल से कि, वह लगभग हिला देने वाली थी। ब्रिगेडियर नासर ने खेत्रपाल को बताया कि 16 दिसम्बर, 1971 को शकरगढ़ सेक्टर के जारपाल के रण में वह ही अरुण खेत्रपाल (Second Lieutenant Arun Khetarpal) के साथ युद्ध करते हुए आमने-सामने थे और उन्हीं का वार उनके बेटे के लिए प्राण घातक बना था। खेत्रपाल स्तब्ध रह गए थे। नासर का कहना जारी रहा था। नासर के शब्दों में एक साथ कई तरह की भावनाएँ थी।

वह उस समय युद्ध में पाकिस्तान के सेनानी थे इस नाते अरुण उनकी शत्रु सेना का जवान था, और उसे मार देना उनके लिए गौरव की बात थी, लेकिन उन्हें इस बात का रंज भी था कि इतना वीर, इतना साहसी, इतना प्रतिबद्ध युवा सेनानी उनके हाथों मारा गया। वह इस बात को भूल नहीं पा रहे थे। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

ब्रिगेडियर नासर ने कहा कि ‘बड़े पिण्ड’ की लड़ाई के बाद ही लगातार अरुण के पिता से सम्पर्क करना चाह रहे थे। बड़े पिण्ड से उसका संकेत उसी रण से था, जिसमें अरुण मारा गया था। नासर को इस बात का दु:ख था कि वह ऐसा नहीं कर पाए, लेकिन यह उनकी इच्छा शक्ति का परिणाम था, जो उनकी इस बहाने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से भेंट हो ही गई। नासर और खेत्रपाल की इस बातचीत के बाद, दोनों के बीच सिर्फ सन्नाटा रह गया था।

लेकिन खेत्रपाल के मन में इस बात का संतोष और गौरव ज़रूर था कि उनका बेटा इतनी बहादुरी से लड़ता हुआ शहीद हुआ कि शत्रु पक्ष भी उसे भूल नहीं पाया और शत्रु के मन में भी उनके बेटे को मारने का दु:ख बना रहा, भले ही यही उसका कर्तव्य था। (लेख – सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल Second Lieutenant Arun Khetarpal)

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