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नाम:- सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh)
Father’s Name :- Sh Sher Singh
Mother’s Name :- Smt Kishan Kaur
Domicile :- Muktsar State : Punjab
जन्म:- 26 सितम्बर 1921
जन्म भूमि :- मेहाकलन गाँव, मोगा, पंजाब
शहादत :- 23 अक्तूबर, 1962 (आयु 41)
शहादत स्थान :- बुम ला, अरुणाचल प्रदेश
सेवा/शाखा :- ब्रिटिश भारतीय सेना, भारतीय थल सेना
सेवा वर्ष :- 1936-1962
रैंक (उपाधि) :- सूबेदार
सेवा संख्यांक(Service No.) :- JC-4547
यूनिट :- प्रथम बटालियन, सिख रेजिमेंट
युद्ध/झड़पें :- द्वितीय विश्व युद्ध, १९४७ का भारत-पाक युद्ध, भारत-चीन युद्ध(1962)
सम्मान :- परम वीर चक्र (1962)
नागरिकता :- भारतीय
अन्य जानकारी :- यह सच था कि वह मोर्चा भारत जीत नहीं पाया लेकिन उस मोर्चे पर सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh) ने जो बहादुरी आखिरी पल तक दिखाई उसके लिए इन्हें भारत सरकार द्वारा परमवीर चक्र दिया गया।
सूबेदार जोगिन्दर सिंह (अंग्रेज़ी: Subedar Joginder Singh, जन्म: 26 सितम्बर 1921 – शहादत: 23 अक्तूबर 1962) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैनिक थे। इन्हें यह सम्मान सन 1962 में मरणोपरांत मिला। स्वतंत्र भारत ने चीन से बस एक युद्ध 1962 में लड़ा जिसने उसे बहुत सारे अनुभव दिए। ये अनुभव फौजी हकीकत से तो जुड़े हुए थे ही इनमें राजनैतिक तौर पर भी बहुत कुछ आँख खोल देने वाला था। इस युद्ध में चीन के साथ लड़ते हुए भारत के चार पराक्रमी योद्धाओं ने परमवीर चक्र प्राप्त किए।
इन चारों में से तीन को तो यह यश मरणोपरान्त मिला और केवल एक वीर सारी कथा को बताने के लिए जीवित बचा रहा। उन तीनों योद्धाओं में जो रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए, एक सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh) भी थे जो 1 सिख रेजिमेंट के सेनानी थे और टोंगपेन ला, नेफा में बूमला मोर्चे पर लड़ रहे थे।
जीवन परिचय
26 सितम्बर 1921 को पंजाब में मोगा के गाँव मेहाकलन में जन्मे जोगिन्दर सिंह बहुत समृद्ध परिवार से नहीं थे। इसी कारण उनकी विधिवत शिक्षा भी लगभग नहीं हुई थी। ऐसी स्थिति में जोगिन्दर की सोच थी कि सेना ही उनके एक बेहतर जगह हो सकती है। सेना में आकर उनकी प्रतिभा का विकास हुआ और उन्होंने वहाँ आर्मी एजूकेशन परीक्षाएँ पास करके अपनी सम्मानपूर्ण जगह बनाई।
वह यूनिट एजूकेशन इन्स्ट्रक्टर बना दिए गए। उनकी ड्रिल और उनकी वर्दी का रख – रखाव आदि इतना अच्छा था कि उनका उदाहरण दिया जाता था। चीन के साथ भारत युद्ध की भूमिका बहुत सुखद नहीं कही जा सकती क्योंकि साठ का दशक भारत के लिए विकास का दौर था। और उसे इस बात का कतई अंदाज नहीं था कि चीन जैसा देश उस पर साम्राज्यवादी दृष्टि गड़ाई बैठा है। हालाँकि चीन अपनी विस्तारवादी नीति के तहत तिब्बत को हथिया ही चुका था।
उस समय भारत का रुझान न तो सैन्य व्यवस्था को आगे रखकर उसे मजबूत करने का था, न ही, उसे अपनी शान्तिपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय नीति को लेकर कोई शंका थी। ऐसे में चीन का आक्रमण भारत के लिए एक चौंका देने वाला परिदृश्य था। उनकी फौजी ताकत और तैयारी तो कमज़ोर थी ही, राजनैतिक दृष्टि भी उतनी परिपक्व नहीं थी जो वह स्थितियों का अंदाज लगा सके और आगे, उस की जानकारी पाकर अपना सन्तुलित कदम तय कर सके। उधर चीन पूरी मुस्तैदी से अपनी से अपनी विस्तारवादी नीति पर चलते हुए भारत की ओर अपना फौजी जमावड़ा बढ़ाता जा रहा था। फिर स्थिति यह आ गई कि भारत को भी कुछ निर्णय लेना पड़ा।
भारत-चीन युद्ध (1962)
मुख्य लेख : भारत-चीन युद्ध (1962)
9 सितम्बर 1962 को भारत के रक्षा मन्त्री वी. के. कृष्ण मेनन ने एक सभा में एक निर्णय लिया कि चीन को थागला रिज की दक्षिणी सीमा से बाहर कर देना है। उस समय भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू कामनवेल्थ देशों के प्रधान मन्त्रियों की बैठक में भाग लेने लन्दन गए हुए थे।
रक्षा मन्त्री की मीटिंग में लिए निर्णय से नेहरू जी को अवगत कराया गया और उन्होंने उस पर अपनी सहमति दे दी और इस तरह 7 इन्फेट्री ब्रिगेड को नामका चू की ओर कूच करने के आदेश दे दिए गए। इस ठिकाने पर चीनी फौजों का जमावड़ा पूरी तैयारी से घात लगाए बैठा था। यहाँ एक नासमझी और हुई। इस निर्णय और खबर को भारतीय प्रेम ने भरपूर ढंग से बढ़ा – चढ़ा कर छापा जिसमें चीन के लिए ललकार भी थी।
जब कि असलियत में भारत की फौजों की तैयारी उतनी काफ़ी नहीं थी। हथियारों और गोला बारूद की भारी कमी के बावजूद भारत के सैनिक और अफसर बेहद बहादुर और जोश से भारे हुए थे। आखिर 20 अक्तूबर 1962 को चीन और भारत बूमला मोर्चे पर अपनी- अपनी फौजों के साथ आपने- सामने आ गए। हमले के बाद जल्दी ही 7 इन्फेन्टरी ब्रिगेन नामका चू पर चीन की फौजों के हाथों साफ हो गई। उनके बाद चीनी फौजें तावांग की ओर बढीं।
सूबेदार जोगिंदर सिंह ने दिखाया अदम्य साहस
यह फौज गिनती में पूरे एक डिवीजन भर थी जब कि उसके सामने भारत की केवल 1 सिख कम्पनी थी। इस कम्पनी की अगुवाई सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh) कर रहे थे। 20 अक्तूबर 1962 का दिन था। सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh) रिज के पास नेफा में टोंग पेन में अपनी टुकड़ी के साथ तैनात थे।
सुबह साढ़े पाँच बजे चीन की फौजों ने बूमला पर जबरदस्त धावा बोला। उनका इरादा टोवांग तक पहुँच जाने का था। दुश्मन की फौज ने तीन दौरों में उन मोर्चे पर हमला किया। हर बार सैनिकों की संख्या 200 थी। पहला हमला सूबेदार की फौजें बहादुरी से झेल गई जिसमें चीन को कोई कामयाबी नहीं मिली। उसका भारी नुकसान भी हुआ। और उसे थम जाना पड़ा। कुछ ही देर बाद दुश्मन ने फिर धावा बोला।
उसका भी सामना जोगिन्दर सिंह ने बहादुरी से किया। ‘जो बोले सो निहाल…’ का नारा लगाते और दुश्मन का हौसले पस्त कर देते। लेकिन दूसरा हमला जोगिन्दर सिंह की आधी फौज साफ कर गया। सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh) खुद भी घायल थे। उनकी जाँघ में गोली लगी थी फिर भी वह जिद में थे कि रण नहीं छोड़ेंगे। उनके नेतृत्व में उनकी फौज भी पूरे हौसले के साथ जमी हुई थी, हालाँकि उसमें भी सैनिक घायल हो चुके थे। तभी दुश्मन की ओर से तीसरा हमला किया गया।
अब तो सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh) ने खुद हाथ में मशीनगन लेकर गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं थीं। चीन की फौज का भी इस हमले में काफ़ी नुकसान हो चुका था, लेकिन वह लगातार बढ़ते जा रहे थे फिर स्थिति यह आई कि सूबेदार की फौज के पास गोलियों का भण्डार खत्म हो गया। अब बारी थी संगीन को खंजर की तरफ इस्तेमाल करके दुश्मन का काम तमाम करने की।
शहादत
सूबेदार और उनके साथी इस मुठभेड़ में भी बिना हिम्मत हारे पूरे जोश के साथ जूझते रहे और आगे बढ़ती चीन की फौजों को चुनौती देते रहे। आखिर वह और उनके बचे हुए सैनिक दुश्मन के कब्जे में आ गए। यह सच था कि वह मोर्चा भारत जीत नहीं पाया लेकिन उस मोर्चे पर सूबेदार जोगिन्दर सिंह (Subedar Joginder Singh) ने जो बहादुरी आखिरी पल तक दिखाई, उसके लिए उनको सलाम। सूबेदार जोगिन्दार सिंह दुश्मन की गिरफ्त में आ गए, उसके बाद उनका कुछ पता नहीं चला। चीनी फौजों ने न तो उनका शव भारत को सौंपा, न ही उनकी कोई खबर दी। इस तरह उनकी शहादत अमर हो गई।
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