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खुदीराम बोस (Khudiram Bose)

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Khudiram Bose
Khudiram Bose

Khudiram Bose – खुदीराम बोस अपने जीवन को जोखिम में डालकर मरते दम तक इस अभियान के लिए लड़ते रहे। एक क्रांतिकारी होने के साथ-साथ उनमे कई सारे राजनैतिक गुण भी थे। खुदीराम बोस (Khudiram Bose) जीवनभर समाजसेवा करते रहे। और अंततः एक महान क्रांतिकारी आज़ादी की लड़ाई में कम उम्र में ही मारा गया। उस समय भारत दुनिया में आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया था। खुदीराम बोस (Khudiram Bose) इतिहास में हमेशा एक “अग्नि पुरुष” के नाम से जाने जाते है।

पूरा नाम  – खुदीराम त्रिलोकनाथ बोस

जन्म       –   3 दिसम्बर 1889

जन्मस्थान – हबीबपुर, जि.मिद्नापोरे

पिता       –  श्री त्रिलोकनाथ बोस

माता       – लक्ष्मीप्रिया देवी

खुदीराम बोस की जीवनी – Khudiram Bose Biography in Hindi

खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिद्नापोरे जिले के तामलुक शहर के हबीबपुर जैसे छोटे गाव में 3 दिसम्बर 1889 को त्रिलोकनाथ बोस और लक्ष्मीप्रिया देवी के परिवार में हुआ।

खुदीराम बोस बंगाल के एक युवा राजनेता थे। केवल एक राजनेता ही नही बल्कि वे ब्रिटिश कानून के खिलाफ लड़ने वाले मुख्य क्रांतिकारी थे। खुदीराम बोस (Khudiram Bose) आज़ादी के समय सबसे शक्तिशाली और युवा क्रांतिकारी रह चुके थे। खुदीराम बोस भारत को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के अपने इस अभियान से कभी पीछे नहीं मुड़े।

उन्होंने उस समय बहोत से युवको को भी अपने इस आज़ादी के अभियान में शामिल किया था। खुदीराम बोस उस समय युवको के प्रेरणास्त्रोत थे।

कहा जाता है की इतिहास में ब्रिटिश अधिकारी इस महान क्रांतिकारी (खुदीराम बोस) के पास जाने से भी डरते थे। 20वी सदी के शुरुवात में ही शहीद होने वाले क्रांतिकारियों में खुदीराम बोस (Khudiram Bose) पहले थे।

क्रांति के रास्ते में प्रेरणा – Freedom Fighter Of India

जन्म से ही Khudiram Bose में क्रांतिकारी के गुण दिखने लगे थे। जन्म से ही खुदीराम बोस को जोखिम भरे काम पसंद थे। जन्म से ही उनके चेहरे पर अपार साहस छलक रहा था। स्वाभाविक रूप से ही वे राजनैतिक संघ के एक महान नेता थे।

1902-03 में ही खुदीराम बोस (Khudiram Bose) ने आज़ादी के संघर्ष में हिस्सा लेने की ठानी। उस समय लोगो को ब्रिटिश कानून के विरुद्ध प्रेरित करने के लिए श्री औरोबिन्दो और भगिनी निवेदिता वही पर थे। वे उस समय के सबसे छोटे क्रांतिकारी थे जिनमे कूट-कूट कर उर्जा भरी हुई थी। उन्होंने तामलुक के एक विद्यार्थी क्रांति में भी हिस्सा लिया। श्री औरोबिन्दो से प्रेरित होकर, वे श्री औरोबिन्दो और भगिनी निवेदिता के गुप्त अधिवेशन में शामिल हुए।

कुछ समय बाद ही सन 1904 में तामलुक से खुदीराम मेदिनीपुर गये जहा सिर्फ उन्होंने मेदिनीपुर स्कूल में ही दाखिला नही लिया बल्कि शहीदों के कार्यो में भी वे शामिल हुए। और क्रांतिकारियों को सहायता करने लगे।

उस समय वे शहीद क्लब के एक मुख्य सदस्य बन चुके थे, जो पुरे भारत में प्रचलित था। उनकी राजनैतिक सलाह, कुशल नेतृत्व की सभी तारीफ करते थे। अपने इन्ही गुणों की वजह से वे केवल मेदिनीपुर में ही नही बल्कि पुरे भारत में प्रचलित थे। बोस अपने जीवन को समाजसेवा करने में न्योछावर करना चाहते थे। खुदीराम बोस (Khudiram Bose) को भगवद्गीता और अपने शिक्षक सत्येन्द्रनाथ बोस से भी प्रेरणा मिलती थी।

सन 1905 में ब्रिटिश सरकार को अपनी ताकत दिखाने के लिए वे एक राजनैतिक पार्टी में शामिल हुए और इसी साल वे बंगाल विभाजन में भी शामिल हुए। कुछ महीनो बाद ही मेदिनीपुर के पुलिस स्टेशन के पास ही खुदीराम ने बॉम्ब (बम) ब्लास्ट किये।

लेकिन 1905 में पुलिस उन्हें नहीं पकड़ पाई, पुलिस उन्हें घटना के 3 साल बाद पकड़ने में सफल रही। और पकड़ने के बाद बम ब्लास्ट में उन्हें दोषी ठहराते हुए उन्हें मृत्यु की सजा दी गयी।

मुजफ्फरपुर का हादसा:

कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने के लिए खुदीराम तथा प्रफुल्ल चाकी का चयन किया गया। खुदीराम को एक बम और पिस्तौल दी गयी। प्रफुल्ल को भी एक पिस्तौल दी गयी थी। बाद में ये दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर चले गये, जहा वे नाम बदलकर रहने लगे। जानकारी के अनुसार उनका नाम हरेन सरकार और दिनेश रॉय रखा गया था।

मुजफ्फरपुर में ही वे किशोरीमोहन की “धर्मशाला” में रहने लगे। उन्हें सिर्फ किंग्सफोर्ड को ही मारना था इसलिए खुदीराम और प्रफुल्ल दिन के समय कोर्ट के आस-पास के मासूम लोगो को नही मारना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने निश्चय किया की वे किंग्सफोर्ड को तभी मारेंगे जब वह लोगो से दूर अकेला होंगा।

30 अप्रैल 1908 को, खुदीराम बोस और प्रफुल्ल युरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड के आने का इंतज़ार कर रहे थे। उस समय करीब रात के 8.30 बज चुके थे।

तभी खुदीराम ने अँधेरे में आगे वाली बग्गी पर बम फेका और गोलिया चलाई। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल ये सोचकर की उनका काम खत्म हो गया। वह वहा से भाग निकले। लेकिन उन्हें बाद में पता चला की उस रात किंग्सफोर्ड की बग्गी में एक महिला और उसकी बेटी थी। जिनकी हादसे में मौत हो चुकी थी। अपने इस गलती पर प्रफुल्ल और खुदीराम दोनों को बाद में पछतावा होने लगा। बाद में वह लगातार पुलिस की नज़रो से बचते रहे। और हादसे के कुछ समय बाद ही पुलिस ने उन्हें अपनी गिरफ्त में कर लिया था।

खुदीराम के साथी प्रफुल्ल चाकी की मृत्यु:

किंग्सफोर्ड को मारने में असफल होने के बाद पुलिस की नज़रो से बचने के लिए खुदीराम और प्रफुल्ल दोनों ने अलग-अलग रास्तो पर जाने का निश्चय किया। उधर अलग रास्ते पर जाने के बाद प्रफुल्ल चाकी भी भाग-भाग कर भूक-प्यास से तड़प रहे थे।

1 मई को ही जब उनका साथीदार खुदीराम पकड़ा गया, प्रफुल्ल को मुजफ्फरपुर में ही बचने के लिए एक स्थानिक का घर मिल गया। उस आदमी ने उनकी मदद की और रात को ट्रेन में बिठाया पर रेल यात्रा के दौरान ब्रिटिश पुलिस में कार्यरत एक सब-इंस्पेक्टर को शक हो गया और उसने मुजफ्फरपुर पुलिस को इस बात की जानकारी दे दी।

जब प्रफुल्ल चाकी हावड़ा के लिए ट्रेन बदलने के लिए स्टेशन पर उतरे तब पुलिस पहले से ही वहा मौजूद थी। अंग्रेजो के हाथो मरने की बजाये चाकी ने खुद को गोली मार ली और शहीद हो गये।

खुदीराम बोस की गिरफ्तारी – Khudiram Bose

ब्रिटिश अधिकारी खुदीराम बोस / Khudiram Bose को पकड़ने के लिए जगह-जगह तैनात किये गये थे। और साथ ही ब्रिटिश सरकार ने उनपर 1000 रुपयों का इनाम रखा। यह जानते हुए भी की पुलिस उनके पीछे पड़ी है। खुदीराम बोस (Khudiram Bose) ने मेदिनीपुर जाने का निर्णय किया।

वही ओयेनी में उनका एक बीमारी इंतज़ार कर रही थी। ओयेनी में खुदीराम बीमार होने की वजह से एक ग्लास पानी पिने के लिए रुके। जैसे ही खुदीराम चाय की टपरी पर पानी पिने के लिए रुके उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। यह याद करने योग्य बात है की मुजफ्फरपुर की घटना के समय खुदीराम की आयु केवल 18 साल ही थी। सिर्फ 18 साल की उम्र में इतना बड़ा हादसा करना निश्चित ही एक चमत्कार के समान ही है।

1 मई 1908 को पुलिस ने उन्हें अपनी गिरफ्त में लिया। जिस समय मुजफ्फरपुर के लोग स्टेशन खड़े होकर भावुक नज़रो से उस 18 साल के बच्चे को देख रहे थे उसी समय वह साहसी बच्चा (खुदीराम) “वन्दे मातरम” के नारे लगा रहा था।

खुदीराम बोस / Khudiram Bose को 2 मई 1908 को जेल की सलाखों के पीछे डाला गया था और 21 मई को सुनवाई शुरू की गयी। बिनोदबिहारी मजुमदार और मन्नुक ब्रिटिश सरकार के गवाह थे जबकि उपेन्द्रनाथ सेन, कालिदास बसु और क्षेत्रनाथ बंदोपाध्याय, खुदीराम के बचाव में लढ रहे थे। नरेन्द्रनाथ लहिरी, सतीशचन्द्र चक्रवर्ती और कुलकमल भी खुदीराम के बचाव में आगे आये।

23 मई 1908 को खुदीराम ने कोर्ट में अपना पहला स्टेटमेंट दिया। अपने वकील की सलाह को मानते हुए खुदीराम ने हादसे में शामिल होने से इंकार कर दिया।

उनकी सुनवाई इसी तरह धीरे-धीरे चलती गयी और 13 जून को अंतिम सुनवाई की गयी। कहा जाता है की उनकी सुनवाई के दिन उनका बचाव करने वाले को एक पत्र मिला था जिसमे भविष्य में होने वाले बिहारियों और बंगालियों पर होने वाले बम ब्लास्ट के बारे में चेतावनी दी गयी थी। इस पत्र के मिलते ही बचाव पक्ष और भी कमजोर हो गया था और खुदीराम को मुजफ्फरपुर के बम ब्लास्ट में दोषी पाते हुए मृत्यु की सजा सुनाई गयी।

खुदीराम ने न्यायाधीश के इस निर्णय को बिना कोई विरोध किये मान लिया और अपने बचाव के लिए उच्च न्यायालय में अपील करने से भी मना कर दिया। उनके वकील ने जिन्होंने खुदीराम को अपील करने पर मजबूर किया था। ताकि वह अपने मातृभूमि की सेवा कर सके।

8 जुलाई 1908 को नरेन्द्रकुमार बसु जो खुदीराम के बचाव में लढ रहे थे उन्होंने उच्च न्यायालय में अपील की। और इस अपील के साथ ही खुदीराम पुरे भारत में एक महान क्रांतिकारी बन गये थे। जिनके बचाव में पूरा देश आ चूका था।

13 जुलाई को मुजफ्फरपुर में हुई घटना पर पुनः सुनवाई की गयी और उच्च न्यायालय ने इस समय नरेन्द्रकुमार बसु की बातो को सुनते हुए खुदीराम बोस (Khudiram Bose) को जीवनदान दिया। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने पहले से ही तय कर रखा था की वह किसी भी हालत में खुदीराम को म्रुत्यु की सजा ही देंगे।

इतने बड़े हादसे का यह मुकदमा केवल पांच दिन चला। जून 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मृत्यु की सजा सुनाई गयी। इतना संगीन मुकदमा और सिर्फ पांच दिन में समाप्त यह बात न्याय के इतिहास में एक मजाक बनी रहेंगी।

11 अगस्त 1908 को इस वीर क्रन्तिकारी को फांसी पर चढ़ा दिया गया। उन्होंने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दिया। जब खुदीराम बोस (Khudiram Bose) शहीद हुए थे तब उनकी आयु 19 वर्ष थी। शहादत के बाद खुदीराम पुरे भारत में प्रसिद्ध हो गये थे। इनकी शहादत से समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। इसके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए कई देशभक्ति गीत रचे गये और इनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ।

खुदीराम मर कर भी अमर हुए और उन्होंने दूसरो को भी इसी तरह अमर होने की प्रेरणा दी। थोड़े ही समय में हजारो स्त्री-पुरुषो ने खुदीराम के मार्ग पर चलते हुए भारत में अंग्रेजो की सत्ता नष्ट कर दी। जहा बाद में अंग्रेजो को भारत छोड़ना ही पड़ा।

एक नजर में खुदीराम बोस का इतिहास – Khudiram Bose History

1889 – खुदीराम का जन्म 3 दिसम्बर को हुआ।

1904 – वह तामलुक से मेदिनीपुर चले गये और क्रांतिकारी अभियान में हिस्सा लिया।

1905 – वह राजनैतिक पार्टी जुगांतर में शामिल हुए।

1905 – ब्रिटिश सरकारी अफसरों को मारने के लिए पुलिस स्टेशन के बाहर बम ब्लास्ट।

1908 – 30 अप्रैल को मुजफ्फरपुर हादसे में शामिल हुए।

1908 – हादसे में लोगो को मारने की वजह से 1 मई को उन्हें गिरफ्तार किया गया।

1908 – हादसे में उनके साथी प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मारी और शहीद हुए।

1908 – खुदीराम के मुक़दमे की शुरुवात 21 मई से की गयी।

1908 – 23 मई को खुदीराम ने कोर्ट में अपना पहला स्टेटमेंट दिया।

1908 – 13 जुलाई को फैसले की तारीख घोषित किया गया।

1908 – 8 जुलाई को मुकदमा शुरू किया गया।

1908 – 13 जुलाई को अंतिम सुनवाई की गयी।

1908 – खुदीराम के बचाव में उच्च न्यायालय में अपील की गयी।

1908 – खुदीराम बोस को 11 अगस्त को फांसी दी गयी।

खुदीराम बोस – Khudiram Bose को आज भी सिर्फ बंगाल में ही नही बल्कि पुरे भारत में याद किया जाता है। उनके युवाशक्ति की आज भी मिसाले दी जाती है। भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में अनेक कम आयु के वीरो ने भी अपने प्राणों की आहुति दी है। उनमे खुदीराम बोस (Khudiram Bose) का नाम स्वर्णक्षरो में लिखा जाता है।

उन्हें ‘स्वाधीनता संघर्ष का महानायक’ भी कहा जाता है। निश्चित ही जब-जब भारतीय आज़ादी के संघर्ष की बात की जाएँगी तब-तब खुदीराम बोस (Khudiram Bose) का नाम गर्व से लिया जायेंगा।

धन्य है वह धरती जिसने इस महापुरुष को जन्म दिया।

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